इसवा के फलदार दरख़्त के लिए “ज़रूरी कीटनाशक” जैसी है डॉ. फ़हमी की नसीहत, मुशाहिद रफ़त

 बेताब समाचार एक्सप्रेस के लिए बरेली से मुस्तकीम मंसूरी की रिपोर्ट,

एजुकेशन कॉन्फ़्रेंस में स्पीकर्स की ज़्यादातर बातें पुरअसर थीं। मगर, कुछ बातें ऐसी भी कही गईं जिन्हें सुनकर डॉ. फ़हमी ख़ान की स्पीच बहुत ख़ास लगने लगी। आइए, जानते हैं क्यों ?_


इसवा यानि इंटलेक्चुअल सोशल वेलफ़ेयर एसोसिएशन ने 3 नवंबर 2024 को बरेली के आईएमए हॉल में “एजुकेशन कॉन्फ़्रेंस” के नाम से एक प्रोग्राम रखा, जिसमें बरेली, बदायूँ, पीलीभीत और शाहजहाँपुर के पचास से ज़्यादा ऐसे मुस्लिम स्टूडेंट्स को इज़्ज़त-ओ-इकराम से नवाज़ा गया जिन्होंने नीट क्वालिफ़ाई करके अपना, अपने घरवालों का और पूरे इलाक़े का नाम रोशन किया है। तक़रीबन चार सौ सीटों वाले आईएमए हॉल में खचाखच भीड़ ने इन बच्चों की ख़ूब हौसलाअफ़ज़ाई की। ख़ुसूसी मेहमानों ने भी दुआओं से नवाज़ा। प्रोग्राम देखकर लगा कि तीन साल पहले इसवा नाम का जो पौधा लगाया गया था, वो अब एक दरख़्त में तब्दील हो रहा है और उस पर फल भी आने लगे हैं। मगर, इसी प्रोग्राम में कुछ ऐसी बातें भी सुनने को मिलीं जिन्हें मद्देनज़र रखते हुए मैं इसवा की ही ओहदेदार डॉ. फ़हमी ख़ान की छोटी सी स्पीच को इस दरख़्त के लिए “ज़रूरी कीटनाशक” लिख रहा हूँ।


इलाहाबाद हाई कोर्ट के साबिक़ जज मियाँ सय्यद वाइज़ इस एजुकेशन कॉन्फ़्रेंस के मेहमान-ए-ख़ुसूसी थे। तीन घंटे से ज़्यादा चले प्रोग्राम में शुरू से आख़िर तक उनकी मौजूदगी इस बात की गवाही दे रही थी कि कॉन्फ़्रेंस कामयाब रही। यह देखकर भला मालूम हुआ कि उन्होंने एक-दो बार नहीं, कई बार अपनी कुर्सी से उठकर अपने हाथों से बच्चों को शील्ड दी और दुआओं से नवाज़ा। आख़िर में उनका ख़िताब हुआ जिसे सुनने का मौक़ा मुझे नहीं मिल सका। अलबत्ता, उनसे पहले बोलने वाले कमोबेश सभी लोगों की बात मैंने सुनी। ज़्यादातर बातें पुरअसर थीं। मगर, कुछ बातें ऐसी भी कही गईं जिन्हें सुनकर डॉ. फ़हमी की स्पीच बहुत ख़ास लगने लगी। उन बातों का ज़िक्र बाद में करूँगा मगर पहले डॉ. फ़हमी की वो बात आपके सामने रख देना चाहता हूँ जो उन्होंने छोटी सी तक़रीर में बच्चों से शेयर की।


डॉ. फ़हमी ने कहा कि आजकल माहौल ऐसा है कि अपने-अपने इंस्टीट्यूट पहुँचते ही बच्चों को हर क़दम पर अपने मज़हब के बारे में उल्टे-सीधे सवालों से दो-चार होना पड़ेगा। इसका सामना करने का इकलौता तरीक़ा यही है कि हम अपने मज़हब को ठीक से समझें और जिन बातों पर एतराज़ किया जा रहा है उनके बारे में मुनासिब जवाब दे सकें। डॉ. फ़हमी ने वक़्त की तंगी का ज़िक्र करते हुए कहा कि हम सब चाहे कितने भी बिज़ी हो जाएं मगर जो काम हमें इम्पॉरटैंट लगता है उसके लिए किसी न किसी तरह वक़्त निकाल ही लेते हैं। इसलिए हमें चाहिए कि मज़हब को इम्पॉरटैन्ट मान लें ताकि उसके लिए वक़्त भी निकाल सकें।


इस नसीहत को जानने के बाद वो बातें भी जान लीजिए जिन्हें कॉन्फ़्रेंस में सुनकर मुझे लगा कि डॉ. फ़हमी की बात एक “ज़रूरी कीटनाशक” जैसी है। मिसाल के तौर पर एक स्पीकर ने अपने आप को “फ़तवा प्रूफ़” कह डाला। ख़ुद को यह लक़ब देने से पहले इन साहब ने अपने कई अचीवमेंट्स गिनाए जो बिला शक क़ाबिल-ए-तारीफ़ थे, मगर फिर उन्होंने कुछ इस अंदाज़ में गुफ़्तगू फ़रमाई जैसे फ़तवा न मानना कोई बहुत अच्छी बात हो या फ़तवा देने वाले मुफ़्ती हज़रात बेहद तंगनज़र लोग हों जो क़ौम की तरक़्क़ी में बस अड़ंगे ही डालते रहते हैं। मेरा ख़्याल है कि इन साहब को चन्द ईमानफ़रोशों की वजह से तमाम उलामा और मुफ़्ती हज़रात के बारे में बच्चों से ऐसी बात नहीं कहनी चाहिए थी। अगर आपको ऐसा लगता भी है तो बच्चों के ज़हन में ऐसे ख़याल का बीज नहीं बोना चाहिए जिससे दीन के अहकाम क़ैद-ओ-बंदिश मालूम होने लगें।


इसी तरह एक और साहब ने तालियाँ बजाते रहने को “सदक़ा-ए-जारिया” क़रार दिया। अब कोई उनसे पूछे कि तालियाँ बजाना कब से सदक़ा हो गया, और वो भी सदक़ा-ए-जारिया ? इसके बाद मेहनत, कोशिश, हिम्मत और ऐसी तमाम चीजों का ज़िक्र करते हुए इन साहब ने तक़दीर और मुक़द्दर को आख़िरी मनसब पर रखा। काश, ये साहब इसी बरेली शरीफ़ में लिखा गया और आज महज़ पंद्रह-बीस रुपये के हदिये में दस्तयाब रिसाला “तक़दीर-ओ-तदबीर” ही पढ़ लेते तो बच्चों को तदबीर की अहमियत भी समझाते और तक़दीर का मसअला भी बताते ? मेरा बस इतना कहना है कि माइक मिल जाने का मतलब यह तो नहीं कि हम अहकाम-ओ-अक़ायद का ध्यान ही न रखें, ताली बजाने को सदक़ा-ए-जारिया कह डालें और तक़दीर की अहमियत ही कम कर दें।


इसी तरह एक स्पीकर ने मदरसे की पढ़ाई को कमतर बनाकर पेश किया। वो भी तब जब वो ख़ुद एक मदरसे का ही प्रोडक्ट हैं। अव्वल तो दीन की पढ़ाई हक़ीर या कमतर है नहीं, दूसरे यह कि अगर दुनियवी एतबार से देखना चाहें तो आज भी हिंदुस्तान में मदरसों के अलावा ऐसा कोई तालीमी इदारा नहीं है जहाँ दसवीं क्लास के लेवल पर अरस्तू से लेकर अफ़लातून तक का फ़लसफ़ा पढ़ाया जाता हो या फिर इन्बे सिना की थ्योरीज़ समझाई जाती हों। इन साहब ने लड़कों और लड़कियों के साथ बराबरी से पेश आने की ताकीद करते हुए भी कुछ ज़्यादा ही छूट की वकालत कर डाली। लिबास के बारे में भी इन्होंने कुछ ऐसा ही फॉर्मूला पेश किया कि जब लड़कों से नहीं पूछते हो तो लड़कियों से क्यों पूछोगे ? अरे भाई, यह क्यों नहीं कहते कि लड़कों से भी पूछो और लड़कियों से भी पूछो। ऊपर से ये सानिया मिर्ज़ा वाली मिसाल भी कुछ जमती नहीं है। अभी एक हफ़्ता पहले ही यूनाइटेड नेशंस के एक्सपर्ट्स ने फ़्रांस में खिलाड़ियों के हिजाब पर लगी रोक को “डिसक्रिमिनेशन” यानि “भेदभाव” की कैटगरी में रखा है। मेरा ख़याल है कि बराबरी का मतलब बच्चों या बच्चियों को छुट्टा छोड़ देना नहीं हो सकता। आख़िर अपनी वैल्यूज़ के मुताबिक़ कुछ रस्मो-रिवाज अपनाना और किसी ख़ास तरह का लिबास पहनना या पहनने की ताकीद करना कोई बुरी बात तो नहीं।

इसीलिए मैं लिख रहा हूँ कि डॉ. फ़हमी ने एजुकेशन कॉन्फ़्रेंस में जो कुछ कहा वो एक “ज़रूरी कीटनाशक” है। मुझे याद है कि ईद के मौक़े पर इसवा ने जो जश्न मुनअक़िद किया था, उसमें भी डॉ. फ़हमी ने ऐसी ही बात कही थी। उन्होंने सभी से गुज़ारिश की थी कि जिस तरह ईद के जश्न में इकट्ठा हुए हैं, उसी तरह जब दीनी मालूमात का प्रोग्राम हो तब भी इतनी ही तादाद में शरीक हों। मुझे उम्मीद है कि डॉ. फ़हमी ख़ान की इस बात को आगे बढ़ाते हुए इसवा के सीनियर ओहदेदारान जल्द ही ऐसा प्रोग्राम बनाएंगे जिससे न सिर्फ़ बच्चों को, बल्कि बड़ों को भी दीन समझने और उस पर अमल करने की सआदत नसीब होगी।

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