सुबह छोड़ कर मुनव्वर राना चला गया*
दुनियां से उसका आबो दाना चला गया,
सुबह छोड़ कर मुनव्वर राना चला गया।
हर रिश्ते को जिसने ढाला था ग़ज़लों में,
उसकी सांसों का ताना-बाना चला गया।
कहां से निकालेंगे नई ग़ज़लें संभालकर,
बस्ती से शायरी का बारदाना चला गया।
इन हालातों पे डाले कौन तंज़ की चादर,
तमाम हौसलों का मालखाना चला गया।
ऐसे ही नहीं भटके सही मंज़िलों से लोग,
रहबर कसौटी पर आज़माना चला गया।
ये गली, मौहल्ले, शहर यूं ही नहीं उदास,
आज रौनकों का आना जाना चला गया।
कैसे रात भर की मस्ती में झूमेंगे मुशायरे,
'ज़फ़र,' ग़ज़लों का कारखाना चला गया।
ज़फ़रुद्दीन"ज़फ़र"
एफ -413,
कड़कड़डूमा कोर्ट,
दिल्ली-32
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