सपा सुप्रीमो अखिलेश यादव और बसपा सुप्रीमो मायावती के सहयोग से उत्तर प्रदेश में भाजपा लगातार हो रही है मज़बूत, आखिर क्यों ?

बेताब समाचार एक्सप्रेस के लिए मुस्तकीम मंसूरी की खास रिपोर्ट

लखनऊ, उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव 2022 में भाजपा को प्रचंड बहुमत हासिल होने में सपा और बसपा की भूमिका को गौर करें तो वर्ष 2007 से 12 तक मायावती ने उत्तर प्रदेश की सत्ता संभाली जिसमें उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रहते मायावती पर भ्रष्टाचार के कई आरोप प्रत्यारोप सपा और भाजपा द्वारा लगाए गए, उसके बाद 2012 के चुनाव में उत्तर प्रदेश की जनता ने मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व में सपा को पूर्ण बहुमत देकर उत्तर प्रदेश की सत्ता मुलायम सिंह को सौंप कर मायावती को सत्ता से बेदखल कर दिया,



यहां गौरतलब है की उत्तर प्रदेश की जनता ने 2012 के चुनाव में मुलायम सिंह के चेहरे पर वोट किया था, ना कि अखिलेश यादव के चेहरे पर परंतु मुलायम सिंह ने अपनी विरासत अपने पुत्र अखिलेश यादव को मुख्यमंत्री बना कर उनके हवाले कर दी, अखिलेश यादव के मुख्यमंत्री बनते ही सबसे पहले मुलायम परिवार में सियासी तौर पर मुलायम के उत्तर अधिकारी शिवपाल सिंह यादव ने बगावत कर अखिलेश यादव को नेता मानने से इनकार कर अपनी अलग पार्टी बना प्रगतिशील समाजवादी पार्टी लोहिया बना ली, और समाजवादी पार्टी के वह लोग जो नेताजी मुलायम सिंह यादव को अपना नेता और आदर्श मानते थे, वह भी बागी होकर शिवपाल यादव के साथ आ गए और उन्होंने भी अखिलेश यादव को नेता नहीं माना, अखिलेश यादव को पूर्ण बहुमत की सरकार के साथ ही सपा के 23 सांसद भी लोकसभा में सपा का नेतृत्व कर रहे थे, 

अखिलेश यादव के मुख्यमंत्री रहते 2014 के लोकसभा चुनाव सपा  सुप्रीमो के लिए किसी अग्निपरीक्षा से कम नहीं थे, क्योंकि उत्तर प्रदेश से सपा के 23 सांसद  लोकसभा में मौजूद थे, और पहली बार अखिलेश यादव के नेतृत्व में  उनके मुख्यमंत्री रहते 2014 का लोकसभा चुनाव हुआ और समाजवादी पार्टी के सांसदों की संख्या 23 से घटकर 5 रह जाना इस बात का स्पष्ट संकेत था, कि अखिलेश यादव को उनके समाज ने नेता नहीं माना और उनका समाज भाजपा के साथ चला गया, उत्तर प्रदेश में 71 सीट भाजपा और उनके सहयोगी अपना दल 2 सीट जीत कर उत्तर प्रदेश में सबसे ज्यादा मजबूत हो गई, इसके साथ ही सपा 5 सीट कांग्रेस 2 सीट पर सिमट गई और बसपा अपना खाता भी नहीं खोल सकी, क्योंकि उत्तर प्रदेश में दलित और पिछड़ा वर्ग सपा बसपा का साथ छोड़कर भाजपा के साथ चला गया, अब यहां सवाल ये उठता है कि आखिर दलित माया से नाराज क्यों हुआ इसका कारण दलित समाज में इस बात की चर्चा देखी गई की मान्यवर कांशीराम ने बसपा को मनुवादी व्यवस्था के खिलाफ दलित पिछड़ा अति पिछड़ा और अल्पसंख्यक वर्ग का गठजोड़ करके 85% लोगो को डॉक्टर अब्दुल जलील फरीदी फाउंडर मुस्लिम मजलिस के फार्मूले पर जो कार्य किया था, मान्यवर कांशीराम के मिशन को मायावती ने मनु वादियों से समझौता करके सत्ता की लालसा में बसपा को आज  शून्य पर लाकर खड़ा कर दिया है, वही अखिलेश यादव ने मुलायम सिंह के फार्मूले माई फैक्टर मुस्लिम यादव को बदलकर महिला यूथ, माई का प्रयोग किया और 2017 के चुनाव में सत्ता  गंवा बैठे राजनीतिक जानकारों का मानना है, अखिलेश यादव की ना तजुर्बे कारी और विरासत में मिली सत्ता ने अखिलेश को मगरूर कर दिया भाजपा सत्ता में आ गई और सपा को सत्ता से बाहर कर दिया, आपको बताते चलें अखिलेश यादव के मुख्यमंत्री रहते हैं 2014 लोकसभा चुनाव जो उनके मुख्यमंत्री काल में पहला चुनाव था अखिलेश यादव उस इम्तिहान में पहली मर्तबा फेल हुए, उसके बाद 2019 लोकसभा का चुनाव उनकी पत्नी डिंपल यादव उनके भाई धर्मेंद्र यादव सहित कई परिवार के लोग चुनाव हार गए, अगर अखिलेश यादव आजमगढ़ के अलावा किसी दूसरी जगह से चुनाव लड़ते तो शायद अखिलेश यादव को भी हार का मुंह देखना पड़ता, मुलायम मैनपुरी से चुनाव तो जीत गए परंतु मुलायम की जीत को फक्र वाली जीत नहीं कहा जा सकता, इसके अलावा मोहम्मद आजम खान रामपुर, डॉ एस टी हसन मुरादाबाद, और शफीक उर रहमान वर्क संभल से मुस्लिम अक्सरयत वाली सीटों से चुनाव जीतने में कामयाब हुए वरना जो हाल 2014 में बसपा का हुआ था, वही हाल 2019 में सपा का भी होता, याद रहे लगातार 2014 और 2017 उसके बाद 2019 हार की हैट्रिक के बाद 2022 के चुनाव में अखिलेश यादव के तमाम प्रयासों के बावजूद सपा गठबंधन भाजपा को सत्ता में आने से नहीं रोक सका, यह इस बात का इशारा है की अखिलेश यादव में नेताजी मुलायम सिंह यादव जैसे गुण नहीं है, नेताजी मुलायम सिंह यादव सबको साथ लेकर चलते थे विपक्ष में रहकर मुलायम सिंह यादव सड़क से संसद तक संघर्ष में सक्रिय रहते थे, परंतु अखिलेश यादव को सत्ता विरासत में मिली थी जिस को संभालने के लिए सड़क पर संघर्ष करने की जरूरत थी, और अखिलेश यादव में संघर्ष क्षमता ना होने के कारण लगातार चार बार 2 लोकसभा चुनाव और दो विधानसभा चुनाव में हार का सामना करना पड़ा, और पांचवी हार विधान परिषद चुनाव में अखिलेश यादव को करना पड़ेगी स्वीकार, आपको बताते चलें अखिलेश यादव ने विधान परिषद चुनाव में जिन चेहरों पर दाऊ खेला था, उनमें मिर्जापुर, हरदोई, गाजीपुर, बदायूं के सपा प्रत्याशियों ने नामांकन वापस ले लिए और बुलंदशहर सीट से गठबंधन प्रत्याशी ने भी नाम वापस ले लिया, बात यहीं खत्म नहीं होती है, अलीगढ़, लखीमपुर, एटा, मैनपुरी और मथुरा के प्रत्याशियों के पर्चे भी निरस्त हो चुके हैं, गौरतलब है सपा के 4 प्रत्याशियों व  बुलंदशहर से गठबंधन के प्रत्याशी सहित 5 प्रत्याशियों के नाम वापसी और चार सपा प्रत्याशियों के पर्चा निरस्त हो जाना यह भाजपा को समर्थन  देकर विधान परिषद में मजबूत करने का अखिलेश यादव का आसान तरीका है, आपको बताते  चलें सपा सुप्रीमो अखिलेश यादव और बसपा सुप्रीमो मायावती दोनों ने भाजपा के लिए खोले हैं सत्ता के द्वार, माया ने दलित वोटों को  भाजपा में भेजा और अखिलेश यादव ने मुस्लिम वोटों को सपा में रोका, इस तरह भाजपा को सत्ता में आने का सपा बसपा ने दिया मौका आखिर क्यों?

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